फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।
सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!
इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका - मैं झुक सकूँ - इनकार!
मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
फुंकरण कर, रे समय के साँप !
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनंदा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल संदेश
उगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।
किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आए, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, जरा छोटों तक उठाओ जोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितांत अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव
चल कि बलि पर हो विजय की माप।
फुंकरण कर, रे समय के साँप।।